FCN24News,यह सच है कि वर्तमान में समूचा विश्व कोरोना-काल से गुज़र रहा है। जिसके चलते आर्थिक गतिविधियों का चक्का लगभग पूरी तरह से जाम पड़ गया है। जो कि हरगीज़ अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि कोरोना वायरस की मार एक तरफ और आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और गरीबी-भूखमरी की मार दूजी तरफ। उक्त दोनों चुनौतियों का सामना आज विश्व के अन्य देशों की तरह हमारा भारत भी कर रहा है। लेकिन भारत की अंदरूनी समस्याएं और भी बहुत है। जिसका पहला ताल्लुक सरकार की नीतियों और नीयत से है और दूसरा ताल्लुक लोगो के सब्र और मजबूरी से है। ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि दोनो पक्षों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं।

 आज का हमारा विषय गत 3 मई को मनाए गए विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस से  जुड़ा है। ऐसे में अपने देश में प्रेस कितनी स्वतंत्र है या कभी रही होगी। देश में सरकारें बदलती रही और प्रेस-मीडिया का मूल स्थान और दायित्व सदा तटस्थ रहा है। यानि पत्रकारों का मुख्य दायित्व जनता-सरकार-प्रशासन के बीच सेतु बनकर जनता  तक सरकार की सही नीतियों की प्रशंसा करना और गलत नीतियों का भांडाफोड़ करना ही रहा है। जिसे आम भाषा में घोटालों या स्केंडलस् को उजागर करना ही प्रेस की मूल भूमिका रही है और होती है। लेकिन ताकतवरों नीतिगत तौर अख़बार निकालना और चैनल चलना आर्थिक दृष्टि से इतना महंगा कर दिया कि आज अखबार निकलना या चैनल चलना खाला जी का घर नही रहा। हालात इस कदर बिगड़े कि सरकार-प्रशासन और उद्योग-व्यापारियों की अनुकंपा के बग़ैर पत्र-पत्रिका या चैनल चलना असंभव हो गया। परिणामत: सारा खेल पूंजीपतियों के हाथ में चला गया।से में पत्रकार की योग्यता कहें या काबिलियत के कोई मायने ही नही रहे। संम्पादकों की जगह बिजनेस मैनेजरों ने ले ली। जिनकी अदेशों पर समाचारों की प्राथमिकता निर्भर करने लगी। बदलते समय और परिस्थितियों को देखते हुए बहुत से पत्रकार बंधुओं ने भी येलो जर्नलिज़म का सहारा ले लिया। जिसका मुख्य कारण प्रेस-मीडिया संस्थानों की ओर से आमतौर पत्रकारों  को उनका मासिक मेहनताना देने से साफ मना कर देना  कहा जाए तो गलत न होगा। ऐसे हालात विशेषकर मंझले और छोटे प्रेस-मीडिया संस्थानों द्वारा पैदा किए गए। जि़लास्तरीय पत्रकारों  से तो संस्थानों ने उल्टा कितना बिजनस या ऐड ला सकते हो पर सौदेबाज़ी करनी आरंभी कर दी।

फिर दौर आया सोशल मीडिया का। जिसके  परिणाम पहले मिले-जुले आए और अब धीरे-धीरे सोशल मीडिया के परिणाम आने  घातक हो चुके हैं। संभवत: कहना गलत न होगा कि आज समाज का हर दूसरा व्यक्ति स्वयं को पत्रकार और किसी न किसी पोर्टल का मालिक कह कर सामने वाले पर धौंस जमाने में पीछे नहीं हटता। स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि किसी भी गंभीर और निष्ठावान पत्रकार को अपना सम्मान बचना मुश्किल दिखाई देने लगा है।

पाठकों जो भी गंभीर और अध्ययनशील पत्रकार होगा और वह कोशिश करेगा कि कोई भी समाचार बिना तथ्य के न छापा जाए उस के लिए आज समाज में कोई स्थान दिखाई नही दे रहा। बेशक पत्रकारिता का बेड़ा- गर्क करने में समाज के उस वर्ग का भी बहुत योगदान है जो अपना प्रचार किसी भी तरीके और माध्यम से चाहता है।

पाठको, यूनेस्को की सिफारिश जिसमें निम्बिबीया के विंडोहक में 29 अप्रैल से 3 मई 1991 में जिसके अंतर्गत यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ हम्युमन राइटस् का हवाला दिया गया है, की घोषणा के आता है की अनुपालन करते हुए यूनाइटेड नेशन जनरल एसेंबली द्वारा वर्ल्ड प्रेस डे की घोषणा 1993 के दिसंबर महीने में पहली बार की गई थी और 3 मई का दिन विश्व प्रेस डे के रूप मनाया जाएगा सर्वसम्मति से मान लिया गया। ऐसे में प्रेस डे के उद्देश्य की जब बात करते हैं तो पता चलता है कि:

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